(बैंकाक, थाईलैण्ड के राष्ट्रीय म्यूजियम से निकलकर लिखी गयीं पंक्तियाँ)
देश-काल की सीमाएँ तुम लाँघ सुविस्तृत-
यहाँ-कहाँ अमिताभ! विराजे हो आत्मस्थित!
अरे, यहाँ तो भिन्न अन्न, थल, शब्द, पवन, जल;
किसने यहाँ बसाया तुमको-दे हृदयस्थल?
काल-सिन्धु की लहरों पर खिल रहे कमल वन,
फैलाते शुचि शान्ति, गन्ध, आलोक, समीरण!
चले आ रहे कब से उमड़ाते करुणा-नद!
नवल कमल-से मृदुल चरण धरते सुषमाप्रद!
काष्ठ, धातु औ मोम, वस्त्र, मिट्टी, कागज पर-
अंकित मृदु आलोक तुम्हारा है अजरामर!
कपिलवस्तु के वासी, तुम कण-कण में विस्तृत!
शान्त, स्निग्ध, गम्भीर, आत्म-पद पूर्ण समाहित!
1971