हे आराध्या राधा! मेरे मन का तुझमें नित्य निवास।
तेरे ही दर्शन कारण मैं करता हूँ गोकुल में वास॥
तेरा ही रस-तव जानना, करना उसका आस्वादन।
इसी हेतु दिन-रात घूमता मैं करता वंशीवादन॥
इसी हेतु स्नानको जाता, बैठा रहता यमुना-तीर।
तेरी रूपमाधुरी के दर्शनहित रहता चिर अधीर॥
इसी हेतु रहता कदबतल, करता तेरा ही नित ध्यान।
सदा तरसता चातक की ज्यों, रूप-स्वाति का करने पान॥
तेरी रूप-शील-गुण-माधुरि मधुर नित्य लेती चित चोर।
प्रेमगान करता नित तेरा, रहता उसमें सदा विभोर॥