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हे चंचल कटाक्षोंवाली प्रिया / कालिदास

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संक्षिप्‍येत क्षण इव कथं दीर्घयामा त्रियामा
     सर्वावस्‍थास्‍वहरपि कथं मन्‍दमन्‍दातपं स्‍यात्।
इत्‍यं चेतश्‍चटुलनयने! दुर्लभपार्थनं में
     गाढोष्‍माभि: कृतमशरणं त्‍वद्वियोगव्‍यथाभि:।

हे चंचल कटाक्षोंवाली प्रिये, लम्‍बे-लम्‍बे तीन
पहरोंवाली विरह की रात चटपट कैसे बीत
जाए, दिन में भी हर समय उठनेवाली विरह
की हूलें कैसे कम हो जाएँ, ऐसी-ऐसी दुर्लभ
साधों से आकुल मेरे मन को तुम्‍हारे विरह
की व्‍यथाओं ने गहरा सन्‍ताप देकर बिना
अवलम्‍ब के छोड़ दिया है।