हे ब्रजरमणि-मुकुटमणि राधे! मत्सुख-सुखिनि मधुर रसखान।
नित-नूतन उत्कर्षशील शुचि महाभावरूपा द्युतिमान॥
पल-पल पद-पदपर जो करती सहज सदा मम सुख-सुविधान।
नहीं लेश गुण-गौरवकी स्मृति, नहीं कहीं कुछ भी अभिमान॥
स्थिति, गति, भाव, विचार, भंगिमा, इंगित, सकल अंग-प्रत्यंग।
विविध विचित्र नित्य रस-पूरित प्रेम-पयोनिधि मधुर तरंग॥
जिसका कनक-कमल-मुख होता परम प्रड्डुल्लित नित्य नवीन।
पा रवि-रश्मि-दृष्टिस्न् मम उज्जवल हृदय स्व-सुख-अभिलाषा-हीन॥
मम जीवन-जीवन, मम मन-मन, नित मत्प्राण-प्राण परिपूत।
अविनाभाव भाव सा सब क्रिया सहज ही एकीभूत॥
मिली सदा रहती तुम मुझमें, मैं तुममें रहता नित युक्त।
प्रेम हेतु दो बने परस्पर रहते लीलासे अनुरक्त॥
दोके बिना, न हो पाता, यह लीला-रस-वितरण-आस्वाद।
इसीलिये दो बन लीलारत रहते अमर्याद अविवाद॥