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हे वृषभानु राजनन्दिनि! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

हे वृषभानु राजनन्दिनि! हे अतुल प्रेम-रस-सुधा-निधान!
गाय चराता वन-वन भटकूँ, क्या समझूँ मैं प्रेम-विधान!
ग्वाल-बालकोंके सँग डोलूँ, खेलूँ सदा गँवारू खेल।
प्रेम-सुधा-सरिता तुमसे मुझ तप्त धूलका कैसा मेल!
तुम स्वामिनि अनुरागिणि! जब देती हो प्रेमभरे दर्शन।
तब अति सुख पाता मैं, मुझपर बढ़ता अमित तुहारा ऋण॥
कैसे ऋणका शोध करूँ मैं, नित्य प्रेम-धनका कंगाल!
तुहीं दया कर प्रेमदान दे मुझको करती रहो निहाल॥