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है न बादल कहीं अरु न बरसात है / रंजना वर्मा

हैं न बादल कहीं अरु न बरसात है
शुभ्र निर्मल गगन चाँदनी रात है

लो खुनक से भरी है हवा बह रही
शीत ऋतु की यहाँ से ही शुरुआत है

छू लिया है पवन ने सघन वृक्ष को
थरथराने लगा उस का हर पात है

तितलियाँ फूल को छोड़ कर उड़ रहीं
कुछ पवन कान में कह गयी बात है

धूप में डाल दो गर्म कपड़े सभी
सर्दियों के लिये ये ही सौगात है

भीगता बारिशों में तपा ग्रीष्म भर
शीत में फिर ठिठुरने लगा गात है

ऋतु बदलती रहे साथ मे वक्त के
मौसमों का अनोखा ये अनुपात है