धुँधली हवाएँ ओढ़कर
है काँपता बूढ़ा शहर
कंधे झुके मीनार के
गलियाँ बहुत वीरान हैं
या झुर्रियों से जूझती
टूटी हुई मुसकान है
बदरंग शीशे में खड़ी
सदियों पुरानी दोपहर
सूनी हुईं हैं चौखटें
लेकर अधूरी सायतें
गुंबज खड़े दोहरा रहे
पिछले दिनों की आयतें
अंधे झरोखे देखकर
चेहरे हुए हैं खंडहर
यादें उठाए घूमतीं
बीमार गुज़री पीढ़ियाँ
सूखी नदी की धार पर
बैठी हुईं हैं पीढ़ियाँ
ये पाट क्यों उजड़े हुए
है पूछती गूँगी लहर