Last modified on 6 मई 2014, at 14:06

होती व्यर्थ कपोल कल्पना / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

एक दिन चाचा गधेराम ने, देखा सुंदर सपना।
लेकर नभ में घूम रहे थे, उड़न खटोला अपना।।

खच्चर दादा बैठ बगल में, गप्पें हाँक रहे थे।
रगड़ रगड़ तंबाकू चूना, गुटखा फांक रहे थे।।

चंद्र लॊक की तरफ यानथा, सरसर बढ़ता जाता ।
अगल-बगल में तारों का था, झुरमुट मिलता जाता ।।

हाय -हलो करते थे दोनों, तारे हाथ मिलाते ।
चंदा मामा स्वागत करते, हंसकर हाथ बढ़ाते

जैसे उड़न खटोला उतरा, चंदा की धरती पर।
कूद पड़े दोनों धरती पर, खुशियों से चिल्ला कर।।

पर जैसे ही कदम बढ़ाए, दोनों ने कुछ आगे।
देख सामने खड़े शेर को, डर कर दोनों भागे।।

नींद खुल गई गधेराम की, पड़ा पीठ पर डंडा।
खड़ा हुआ था लेकर डंडा, घर मालिक मुस्तंडा।।

कल्पित और कपोल कल्पना, होती है दुख दाई।
सच्चे जीवन कड़े परिश्रम, में ही है अच्छाई।