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होरी कौ खिलार / ब्रजभाषा

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

होरी कौ खिलार, सारी चूंदर डारी फार॥ टेक
मोतिन माल गले सों तोरी, लँहगा फरिया रंग में बोरी।
कुमकुम मूँठा मारे मार॥ होरी कौ.
ऐसौ निडर ढीठ बनवारी, तक मारत नैनन पिचकारी,
कर सों घूँघट-पट देत टार॥ होरी कौ
राह चलत में बोली मारै, चितवन सौं घायल कर डारे॥
ग्वाल-बाल संग लिये पिचकार॥ होरी कौ.
भरि-भरि झोर अबीर उड़ावै, केशर कीच कुचहिं लगावै।
या ऊधम सों हम गईं हार॥ होरी कौ.
ननद सुने घर देवै गारी, ऐसे निलज्ज भये गिरधारी॥
विनय करत कर जोर तुम्हार॥ होरी कौ.
जब सों हम ब्रज में हैं आई, ऐसी होरी नाहिं खिलाई।
दुलरौ तिलरो तौरौ हार॥ होरी कौ.
कसकत आँख गुलाल है डाला, बड़े घरन की हम ब्रजबाला।
तुम ठहरे ग्वारिया गँवार॥ होरी कौ.
ऐसौ ऊधम तुम नित ठानौ, लाख कहैं पर एक न मानों,
बलिहारी हम ब्रज की नार॥ होरी कौ.
धनि-धनि होरी के मतवारे, प्रेमिन-भक्तन प्रान पियारे।
‘अवधबिहारी’ चरन चित धार॥ होरी कौ.