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होली / राधेश्याम ‘प्रवासी’

सत्यमेव जयते की गूँजी दिग्-दिगंत में बोली,
हुई धर्म की विजय जल गई दुराचार की होली,

यही दिवस था अंगारों पर झोंक दिया जलजात गया,
करि पग के नीचे किसलय-सा पटका वह नवजात गया,
धर्मप्राण जीवन की थी ज्वाला पर हुई समीक्षा,
अगर हो गया राम-भक्त देकर के अग्नि परीक्षा,

ऊषा ने सामोद लगाई स्वयं माल पर रोली!
हुई धर्म की विजय जल गई दुराचार की होली!!

ग्रीवा में विषधर सर्पों के हार पिन्हाये जाते थे,
कदम-कदम पर काँटो के अम्बार बिछाये जाते थे,
नन्हा विद्रोही सन्मुख झुक सका नहीं विपदाओं से,
खेल खेलता रहा विप्लती लपटों पर बाधाओं से,

सह कर कष्ट वन्दिनी संस्कृति की हथकड़ियाँ खोली!
हुई धर्म की विजय जल गई दुराचार की होली!!

यही दिवस था जब मानव ने दानवता को ललकारा,
गूँज गया भूतल पर ‘हर हर महादेव’ का नारा,
हिमगिरि का झुक गया शीश चट्टानें भी थी पिघल उठी,
सागर की हर लहर चरण चुम्बन करने को मचल उठी,

निकल पड़ी जब मतवालों की थी बालि पथपर टोली!
हुई धर्म की विजय जल गई दुराचार की होली!!

गरज उठे पर सिंह दनुजता की विदीर्ण कर छाती,
भारत माँ पा गई पुनः खोई संस्कृति की थाती,
युग-युग से जलती आई है ज्वाला में अपवाद की,
मिट न सकेगी कभी धरा से परिपाटी प्रहलाद की,

मिले हृदय से हृदय उड़ रही थी अबीर की झोली!
हुई धर्म की विजय जल गई दुराचार की होती!!

किसने आकर मन-मन्दिर में जीवन-ज्योति जगादी है,
अन्धकार के धूमिलपन पर रज रश्मि फैलादी है,

किसका यह स्पर्श परम परिचित है अनजाना-सा,
किसका यह स्वर है जो युग-युग से है पहिचाना सा,
कौन, तुम्हारे इंगित पर मैं चला किन्तु तुम कहाँ चले,
जगती के इस निर्जन पथ पर मुझे अकेला छोड़ चले,

ढहती आशा की दीवारें, पर तुम अब भी मौन हो,
बस मैं सब कुछ पा जाऊँगा बतलादो तुम कौन हो!