Last modified on 21 जुलाई 2016, at 23:14

होली / शब्द प्रकाश / धरनीदास

50.

जब मेरो यार मिलै दिलजानी।टेक। हो लवली करो मेहमानी॥
हृदय कमल बिच आसन डारोँ। ले श्रद्धा-जल चरन खटारोँ॥
चितको चंदन चरचि चढ़ाओँ। प्रीतिके पंखहि पवन डोलाओँ॥
भा वके भोजन परसि ज्योँओँ। जो उवरे सो जूठन पाआँ॥
धरनी इत उत फिराँे न भोरे। सनमुख रहोँ दुवो कर जोरे॥1॥

51.

तब तन होई सवारथ मेरो। जब पर-पंच तजाँे बहुतेरो॥
शीश नवै नित साधुन आगे। पगुवी रेण ललाटहिँ लागे॥
श्रवन सुनत साधूकी वैना। हरि-जन-वदन विलोकै नैना॥
रसना संत सुयश परकासा। परम सुवास सुधेँ नित नासा॥
चरन चले सत-संगति भाई। कर कर संत चरन सेवकाई॥
हृदये जो हरि-जन-हिय लागे। धरनी जरा मरन भय त्यागे॥2॥

52.

राम रटो भइ राम रटो। टेक।
पानी ते जिन पिंड सँवारो, मति मन ते उचटो।
या देही को गर्व न कीजै, वृक्ष नदीके तटो॥
देखु देखु अवसर बिति जैहै, जीवन जा त घटो।
जोँ कलकी पूतरि कर-डोरी, कौतुक करत नटो॥
टूटे सूत्र चरित्र करै नहि, अचरज मकर फटो।
धरनी मुड मुंडाय कहा भौ, काह बढाय जटो॥3॥

53.

निर्मल नाम जपो निशिवासर कर्म अनेक कटारो।
ब्रह्मादिक सनकादिक भाषी, साखी निगम मँझारो॥
हरिनाकस हरि-जन दुख दीनो, हति अरि भक्त उबारो।
रावन साधु सतावन लागो, ता हनि सकल उबारो॥
को रूकुमिनि-व्रत राखि लियो शिशु-पाल वदन करि कारो?
दु्रपद-सुता-पति राखि विपतिमेँ, यदपि पाँच पति हारो॥
तँह तँह प्रगट प्रभूकी महिमा, जँह जँह भक्त पुकारो।
धरनी शरन चरन-धरनीधर, अब जनि मोहि विसारो॥4॥


54.

मन मानो कुल-देवाको पूजा।टेक।
चारु चौतरा घम-मँह बाँधो, जा घर और न दूजा॥
जीव-दया की जाडरि राँधो, प्रेम को पीठा धारोँ।
पाँच घँटरुअन कलपि चढ़ाओं, प्रेम को पीठा धारोँ।
पाठा करो पाछित जेतो, संतको सेनुर सारो॥
गहि तरुवारि शब्द सत गुरुको, सहजहिँ भार उतारो॥
भाव-भक्ति की करहु रसोई, संतन चरन खटारो।
धरनीदास विसास ताहि को, अब जीते भव हारो॥

55.

अब मेरो पितर भगति मन माना।टेक।
करिहोँ पितृ-भक्ति निशिवासर, परिहरि सकल विधाना॥
बडे 2 पिंड प्रेमके परिहोँ, धरिहोँ गगन सथाना।
गुरु के शब्द अछयवट साछी, दै दछिना अभिमाना॥
तीरथ अधर त्रिवेनी जल, उर आनंद अरधोता।
एकहिँ ओर सदा जल ढाराँ, मूल मंत्र समुझौता॥
वाउर लोग पितर नहिँ सूझेँ, अरुझेँ पिंडहि पानी।
धरनी जिन यहि धोखा मोटो, तेहि वन्दोँ गुरु ज्ञानी॥6॥

56.

जियरा सुनु उपदेश हमारो।टेक।
जो उपदेश महेश प्रकाश्यो, मूल मंत्र व्यवहारो॥
तुलसीमाल गलेकर भूषन, तिलक ललाट सुधारो।
अवर देवकी सेवा त्यागो, विश्वंभर व्रत धारो॥
लोकाचार सबै परिहरिके, जियते वैर विसारो।
क्रोध कपट अभिमान मान तजि, मिरषा वचन निवारो॥
संतन पद खटारि सरधासाँ, भरम विहंग बिडारो।
धरनी बारंबार पुकारै, जन्म जुआ जनि हारो॥7॥