Last modified on 19 अप्रैल 2011, at 21:35

होश में आए / वीरेंद्र आस्तिक

नींद में हम
प्रार्थनाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए

भाषणों में सार्थक
शब्द कुछ जोड़े नहीं
उठ पड़े कुछ प्रश्न तो
मौन थे ओढ़े वही

शून्य-शिखरों की
सभाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए

मूर्तियों-से शब्द हैं
कौन खोले अर्थ को
कुछ तिलक कुछ पोथियाँ
रट रहीं हैं व्यर्थ को

सत्यनारायण
कथाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए

हम हिमालय पर चढ़े
हाथ खाली आ गए
तीर्थ निकले रेत के
साथ सब भटका गए

छाँइयों की परिक्रमाएँ-
कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए