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हो सकता था / नवीन सागर

इतनी बड़ी दुनिया में कहीं जा नहीं रहा हूं
भीतर और बाहर जगहें छोड़ता
शून्‍य से हटता हूं

किसी की ओर बढ़ता हुआ मैं हो सकता था
बहुत बड़ा तूफान लिए भीतर
दूर तक आता-जाता हो सकता थ
रहने और न रहने के बीच
ठिठका ये डर न होता
हो सकता था खो जाता ऐसा मेरा अर्थ होता

अपने घाव पर उड़ती मक्खियों की सी भिन-भिन नहीं
जो सहा और जाना उसके भीतर से
आती मेरी आवाज
कुछ ऐसे भी होते मेरे शब्‍द
मैं जब उनके अर्थ की कौंध में
एक क्षण-सा पूरा गुजर जाता अकस्‍मात्

छूता किसी को
तो हाथों में अनिश्‍चय न होता
न होता तनाव
अपने दुःखों से दूसरों को लादे बिना
धीरे-धीरे पिघलता हुआ
उसकी आंच में धीरे-धीरे बदलता
होती विरक्ति ऐसी
कि देखता जहां कोई अर्थ नहीं
वहां भी है अर्थ
कुछ भी ऐसा नहीं कि विस्‍मय न हो
कुछ भी ऐसा नहीं कि पहले नहीं था

बारिश में भीगता हुआ लौटता
खिड़कियां खोलता
दूर-दूर पेड़ों के हरे अंधकार में

भरे-पूरे अलाव के ऊपर
बहुत सारे होते मेरे हाथ इस तरह
कि नींद कई घरों में सुलाती एक साथ
बहुत बड़े सपने के सपने सारी रात
सुबजह एक ऐसी दुनिया पर धूप
कि कोई उत्‍सव है हर तरफ.