जो मिले ज़िंदगी से मुझको
फ़रेब-ए-उल्फ़त,
जो दर्द कत्रा-कत्रा चश्म-ए-नम से
बहता रहे,
जो ज़ख्म-ए-जाँ न भर सके
तमाम उम्र कभी,
जो तडप मेरी मुहोब्बत का
सिला बन के मिली...
तुम्हें उन सब का वास्ता है, मेरी जान,
सुनो:
मुझे अब तुमसे नहीं चाहिए सौगात कोई !
थाम लो
सिलसिला-ए-रहम-ओ-करम
अब अपना,
छोड दो मुझको मेरे सूनेपन के साथ अभी !
मुझे दो-चार कदम यूँ ही निकल जाने दो,
मुझे चलने दो ज़िंदगी के साथ-साथ अभी,
साथ जो छूट गया, फिर न थाम पाऊँगी.
मैं बिन सहारों बहुत दूर निकल जाऊँगी,
मुझे अब तुमसे नहीं चाहिए सौगात कोई,
छोड दो मुझको मेरे सूनेपन के साथ ज़रा...
1996