साफ दर्पण में शक्ल देखने का हौसला नहीं बचा।
दिखती है अपनी बेबसी ,व्यथित इंसानों की लाचारगी !
खुद को तसल्ली दे भी लूँ ,क्या कह कर उन्हें तसल्ली दूँ ?
शेर का खाल पहन भी लूँ , खुश हो भी लूँ ,
दहाड़ने का मौसम भी है ,मौका-ये-दस्तुर भी
पूंछ हिलाने से फुरसत कैसे पा लूँ ?
मसाल को मंजिल पर पहुँचाना तो है
मार दिए जाने का ना तो डर ,ना शर्मिंदगी है
लेकिन ,रास्ते ना-वाकिफ हैं ,
लड़ाई के तरीके भूल जाना ,कैसे माफ़ करूँ ?
जिन्हें कोसते-कोसते सुबह-शाम करूँ ,
सब तकलीफों का जिम्मेदार मानूँ ,
जब वे भिक्षाटन में निकले तो मुग्ध हो ,
भिक्षा देने का गर्व क्यूँ न महसूस करूँ ?
न्याय दिलाने के लिए ,कौन सा दरवाज़ा खटखटाऊँ ?
नर-भक्षियों का सामना कर ,सज़ा तक कैसे पहुँचाऊँ?
छुटता जा रहा आस , नील का रंग कैसे उतारूँ ?
आत्मविश्वास के कमान पर स्वाभिमान का तीर कैसे चढ़ाऊँ ?
साफ दर्पण में शक्ल देखने का हौसला कैसे बढ़ाऊँ?