Last modified on 7 अगस्त 2010, at 04:47

12 / हरीश भादानी

घाव फिर दुखने लगा है
विवशताओं से
बांधा इसे कसकर
भूलकर दागी अस्तित्व को
चलने लगे
खोये रहे
अधोरी अभावो के जुलूस में,
पर भीड़ से टूटी-जुड़ी
हर इकाई
सिर्फ अपने ही लिये
कुछ इस तरह झूझी
कुछ इस तरह टकरी कि
चोटिल हो गया
फिर घाव,
सारी विवशताओं को भिगोकर
बदबूदार
रेसा फिर रिसने लगा है !
घाव फिर दुखने लगा है !