Last modified on 19 सितम्बर 2009, at 00:42

151-160 मुक्तक / प्राण शर्मा

         १५१
जब चला घर से तो अँधेरा था
एक खामोशी का बसेरा था
पी के मदिरा मुड़ा मैं जब घर को
हर तरफ़ सुरमई सवेरा था
          १५२
एक मस्ती बनाए रखती है
हर ह्रदय को लुभाए रखती है
यह सुरा रात-दिन लहू बन कर
सबकी नस-नस जगाये रखती है
           १५३
चाक सीता हूँ ज़िंदगी के लिए
मैं तो जीता हूँ ज़िंदगी के लिए
भेद की बात आज बतला दूँ
मैं तो पीता हूँ ज़िंदगी के लिए
          १५४
मन ही मन में क़रार आया है
इक अजबसा ख़ुमार आया है
जब से आयी है रास मय मुझको
ज़िंदगी में निख़ार आया है
          १५५
दोस्त, मयखाने को चले जाना
पीने वालों के साथ लहराना
ज़िंदगी जब उदास हो तेरी
घूँट दो घूँट मय के पी आना
          १५६
रात-दिन मयकदा में आओगे
गुन सुरा के कई बताओगे
जाहिदों, जब पीओगे तुम मदिरा
सारे उपदेश भूल भूल जाओगे
         १५७
साक़ी के बनते तुम चहेते कभी
पल दो पल मयकदा को देते कभी
उसका उपहास करने से पहले
काश, मय पी के देख लेते कभी
        १५८
जाहिदों, पहले अपने डर देखो
तब कहीं, दूसरों के घर देखो
मियाँ ढूँढ़ते हो रिन्दों में
ख़ामियाँ ख़ुद में ढूँढ कर देखो
       १५९
मयकदा में जुटे हुए हैं रिंद
मस्तियों में खिले हुए हैं रिंद
क्या तमाशा किसी का देखेंगे
ख़ुद तमाशा बने हुए हैं रिंद
      १६०
अनभुझी सी प्यास में
मस्तियों की आस में
दौर मदिरा का चला
हास और परिहास में