एक छोटा सा सूटकेस था,
एक बड़ा सा झोला
जिसमें बिछाने के लिए चादर थी और
ओढ़ने के लिए कंबल
और
एक छोटा सा बैग, जिसमें
अख़बार में लिपटे हुए अलग-अलग पैकेटों में पड़ी थीं
कुछ रोटियां और सब्ज़ी
जो मां ने दी थी बड़े जतन से संभालकर
हिदायत देते हुए, कि समय रहते खा लेना
और
अगर बासी हो जाए तो छोड़ देना।
बस यही असबाब लेकर 19 साल पहले
इन्हीं दिनों- ठीक-ठीक बताऊं तो- 8 जुलाई 1993 को
मैं रांची से दिल्ली के लिए चला था।
तब मूरी एक्सप्रेस दोपहर 3.45 को खुला करती थी
और
अगले दिन रात को 10 बज कर 20 मिनट पर पहुंचाती थी
लेकिन अक्सर वह दो-तीन घंटे लेट रहा करती
और इस तरह आधी रात के बाद
मैं रोशनी से चमचमाते इस शहर के स्टेशन उतरा था
जिसका नाम दिल्ली था।
उस रात इस अनजान शहर में किसी अजनबी की तरह खड़ा मैं
कुछ संशय से भरा था और कुछ उम्मीद से
और ढेर सारी यादों से
जो जैसे लगातार आवाज़ दे रही थीं लौट लौट आओ
लेकिन निकल पड़ने के बाद लौटना होता कहां है
तो अपना छोटा सा सूटकेस, बड़ा सा झोला
और एक बैग लेकर, जिसके पैकेटों में बंधी
मां की दी हुई रोटियां बासी होने से पहले ख़त्म हो चुकी थीं
मैं बढ़ता गया आगे, बढ़ता गया आगे।
कई बार लगा खो गया हूं, हर बार भरोसा दिलाया खोज लूंगा ख़ुद को
कई बार लगा लोग छूटते जा रहे हैं, हर बार माना कि एक दिन चला जाऊंगा सब तक।
उसके बाद कई सफ़र किये
लेकिन वह सफ़र आखिरी बना रहा जो ऐसी जगह पहुंचा गया था जहां से लौटना नहीं ही हो पाया।
तो सब छूटते रहे, सब चलते रहे
दूर-दूर, अनजाने
जिसने उस आख़िरी सफ़र की रोटियां दी थीं
वह मां दुनिया छोड़कर किसी और सफ़र के लिए चल दी
जो बचे हुए हैं, वे भी इतनी दूर हैं कि धुंधले से दिखते हैं
और उनकी आवाज़ें पहुंचती भी हैं तो पहचान में नहीं आतीं।
मैं ही कहां किसी से पहचाना जाऊंगा।
वह संशय से भरा नौजवान इन 19 वर्षों में
धूसर दाढ़ी वाला अधेड़ है जो फुरसत मिलने पर स्मृतियों की जुगाली करता रहता है
और किसी पश्चाताप की तरह कविता लिखता रहता है चुपचाप।