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43 / हरीश भादानी

दोस्त
ऐसी जिन्दगी
जीते गए होते तो क्या होता ?
धोंकनी से सांस लेते
सांझ की अंगीठी से सुलगते
और फूटी थालियों से चिपक
रोटी-राम जपते
घिसटते-बौने गदारी देख
धरती के बिछौने पर
आकाश ओढ़े सो गए होते तो क्या होता ?
धूप सी सती पर रीझते
उगा लेते फफोले
वेश्या सी छाँह को छूने न देते
और सड़कों पर भटकते
बिना हड्डियोंवाले सपोलों
विषैली फूत्कारों से रगड़ खाए गए होते क्या होता ?
खुदगर्जियों की
खपचियों पर टिके बीमार सपने
किस्मत में लिखे
सूजन चढ़े संकल्प सारे
पत्थरों को
सर झुकाती अस्थाएँ
और नये कल की
भूमिका भी
बाँच पाने में असमर्थ आँखे-
ऐसी
अपाहिज जिन्दगी को छोड़कर, ए दोस्त !
तुम अभी से बहुत पहले
बहुत पहले मर गए होते तो क्या होता ?
दोस्त
ऐसी जिन्दगी
जीते गए होते तो क्या होता ?