ढर्रे के दिनों से अलग अनोख दिन कोई आयेगा
हमें उम्मीद नहीं होती
हिंदुस्तान में लेकिन कुछ भी भला घट सकता है
ऐसे ही वह दिन और दिनों से अलग घटा गोबरी रंग में धुला-सा
वह कुछ पहले जाग उठी थी
दीवार पर पानी की रजत रश्मियां जैसे कुछ मांड रही थीं
फूल एक-दो ही थे पर मस्ती में डोलते
मैं कईं दिनों बाद आन गांव की नौकरी से लौटा था
एक बारिश घर में उसके बालों से उतर रही थी
यह दृश्य इस तरह शायद दस बरस पहले
मेरी स्मृतियों में उतरा था
सीने में कुछ धड़का जैसे कुछ ही दिन हुये उसे यह देहरी लांघे
धूप कुछ ज्यादा ही खिड़की से उतर बालों से खेल रही थी
बच्चे सुबह की धमाल में व्यस्त थे
मैं अपनी नसों में सुर्ख फूल दमकते देख रहा था
किस कदर मसरूफ थी वह
मैं उसे बच्चों के सामने बांहों में भर लेना चाहता था
मैं कुबूल करना चाहता था अपने अपराध कि
मेरी दिलचस्पियां कैसे छीजती रहीं उसमें
अंगीठी की मद्धिम लौ-सी पकती सुंदरता को
मेरी लाचार आंखें क्यूंकर न देख सकीं
हालांकि उसे यह महज झूठ-मूठ की दिलजोई से ज्यादा
एकाएक कुछ लग नहीं सकता
मैं सचमुच दस बरस पहले का कोई
भावुक फिल्मी गीत गाना चाहता हूं
मुझे तब हेमंत कुमार का 78 आर.पी.एम. गीत बींधता था
मैं आज हेमंत कुमार को तुम्हारे लिये गुनगुनाना चाहता हूं.
मेरी आवाज अपराधी-सी भीग क्यूं रही है इस वक्त!