गैरों ने मुझे बधाई दी
अपनों की स्मृति में न रहा
हा हन्त! इन्हीं अकृतज्ञों की-
खातिर प्राणन्तक कष्ट सहा
जो बुद्धिहीन! नासमझ!! व्यर्थ
इक्यासी वर्ष गँवायें क्यों?
प्रतिफल वे आदि जनक-जननी
साँसो में नहीं समाये क्यों?
दे स्वार्थ-सर्प लिपटा तन से
अस्थियाँ तड़क कर टूट गयीं
सम्मुख आकर पंखुरी ढकीं-
राहें तो पीछे छूट गयीं
अब तो सम्मुख है मृत्यु-खडड्
जिसमें गिर कर गुम होना है
सपनों में सजी पुष्प-शैया
शव को काँटो पर सोना है