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सूरा तन कौ अंग / साखी / कबीर

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काइर हुवाँ न छूटिये, कछु सूरा तन साहि।
भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल सँबाहि॥1॥

षूँड़ै षड़ा न छूटियो, सुणि रे जीव अबूझ।
कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्राँ सूँ झूझ॥2॥

कबीर साईं सूरिवाँ, मन सूँ माँडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥3॥
टिप्पणी: ख-पंच पयादा पकड़ि ले।

सूरा झूझै गिरदा सूँ, इक दिसि सूर न होइ।
कबीर यौं बिन सूरिवाँ, भला न कहिसी कोइ॥4॥

कबीर आरणि पैसि करि, पीछै रहै सु सूर।
सांईं सूँ साचा भया, रहसी सदा हजूर॥5॥
टिप्पणी: ख-जाके मुख षटि नूर।

गगन दमाँमाँ बाजिया, पड़ा निसानै घाव।
खेत बुहार्‌या सूरिवै, मुझ मरणे का चाव॥6॥

कबीर मेरै संसा को नहीं, हरि सूँ लागा हेत।
काम क्रोध सूँ झूझणाँ, चौड़े माँड्या खेत॥7॥

सूरै सार सँबाहिया, पहर्‌या सहज संजोग।
अब कै ग्याँन गयंद चढ़ि, खेत पड़न का जोग॥8॥

सूरा तबही परषिये, लडै धणीं के हेत।
पुरिजा पुरिजा ह्नै पड़ै, तऊ न छाड़ै खेत॥9॥

खेत न छाड़ै सूरिवाँ, झूझै द्वै दल माँहि।
आसा जीवन मरण की, मन आँणे नाहि॥10॥

अब तो झूझ्याँही वणौं, मुढ़ि चाल्या घर दूरि।
सिर साहिब कौ सौंपता, सोच न कीजै सूरि॥11॥

अब तो ऐसी ह्नै पड़ी, मनकारु चित कीन्ह।
मरनै कहा डराइये, हाथि स्यँधौरा लीन्ह॥12॥

जिस मरनै थे जग डरै, सो मरे आनंद।
कब मारिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमाँनंद॥13॥

कायर बहुत पमाँवही बहकि न बोलै सूर।
कॉम पड्याँ ही जाँणिहै, किसके मुख परि नूर॥14॥

जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।
बाँहणहारा जाणिहै, कै जाँणै जिस लाग॥15॥

घाइल घूमै गहि भर्‌या, राख्या रहे न ओट।
जतन कियाँ जावै नहीं, बणीं मरम की चोट॥16॥

ऊँचा विरष अकासि फल, पंषी मूए झूरि।
बहुत सयाँने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि॥17॥
टिप्पणी: ख-पंथी मूए झूरि।

दूरि भया तौ का भया, सिर दे नेड़ा होइ।
जब लग सिर सौपे नहीं, कारिज सिधि न होइ॥18॥

कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैसे घर माँहि॥19॥

कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीर उतारि पग तलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद॥20॥

प्रेम न खेती नींपजे, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥21॥

सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्ह।
जाहि भावे सो आइ ल्यौ, प्रेम आट हँम कीन्ह॥22॥

सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस।
आगै थैं हरि मुल किया, आवत देख्या दास॥23॥

भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारै हाथि करि, सो लेसी हरि नाम॥24॥

भगति दुहेली राँम की, नहिं जैसि खाड़े की धार।
जे डोलै तो कटि पड़े, नहीं तो उतरै पार॥25॥

भगति दुहेली राँम की, जैसी अगनि की झाल।
डाकि पड़ै ते ऊबरे, दाधे कौतिगहार॥26॥

कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्याँन षड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥27॥

कबीरा हीरा वणजिया, महँगे मोल अपार।
हाड़ गला माटी गली, सिर साटै ब्यौहार॥28॥

जेते तारे रैणि के, तेते बैरी मुझ।
घड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौं तुझ॥29॥

जे हारर्‌या तौ हरि सवां, जे जीत्या तो डाव।
पारब्रह्म कूँ सेवता, जे सिर जाइ त जाव॥30॥

सिर माटै हरि सेविए, छाड़ि जीव की बाँणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाँणि न जाणि॥31॥
टिप्पणी: ख-सिर साटै हरि पाइए।

टूटी बरत अकास थै, कोई न सकै झड़ झेल।
साथ सती अरु सूर का, अँणी ऊपिला खेल॥32॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-

ढोल दमामा बाजिया, सबद सुणइ सब कोइ।
जैसल देखि सती भजे, तौ दुहु कुल हासी होइ॥32॥

सती पुकारै सलि चढ़ी, सुनी रे मीत मसाँन।
लोग बटाऊ चलि गए, हम तुझ रहे निदान॥33॥

सती बिचारी सत किया, काठौं सेज बिछाइ।
ले सूती पीव आपणा, चहुँ दिसि अगनि लगाइ॥34॥

सती सूरा तन साहि करि, तन मन कीया घाँण।
दिया महौल पीव कूँ, तब मड़हट करै बषाँण॥35॥

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनन जीव निकल्या, भूति गई सब देह॥36॥

सती जलन कूँ नीकली, चित धरि एकबमेख।
तन मन सौंप्या पीव कूँ, तब अंतर रही न रेख॥37॥
टिप्पणी: ख-जलन को नीसरी।

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ॥38॥

कबीर प्रगट राम कहि, छाँनै राँम न गाइ।
फूस कौ जोड़ा दूरि करि, ज्यूँ बहुरि लागै लाइ॥39॥

कबीर हरि सबकूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ॥40॥

आप सवारथ मेदनी, भगत सवारथ दास।
कबीर राँम सवारथी, जिनि छाड़ीतन की आस॥41॥696॥