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ब्याव (3) / सत्यप्रकाश जोशी

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नई कांन्ह ! नईं
थारौ म्हारौ ब्याव कोनी हो सकै !

कई देसां रै टणका राजवियां री
थटाथट भरी सभा में
लाज में सिंवटयोड़ी,
हिरणी सी डरयोड़ी
कोई बडभागण
थारै हाथां हरण करवा री
कामना करती होसी।
बतूळिया रै भंवर में
थूं उणनै उडा लासी।
परणवा रा कोडीला दूजा पतसाह
आपरी मांग खुसता देख,
रीस री अपमांन री झाळां खदबदता,
थारै लारै
अजेज वा‘र चढ़सी,
पण थूं आपरै आपा रै पांण
पूंनगत रथ माथै हाकां धाकां
उण कंवारी नै
थारै रंगमै‘लां ला बिठासी।