भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको भी इंग्लैंड ले चलो / शैलेन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:12, 5 जून 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} रचनाकार: शैलेन्द्र Category:कविताएँ Category:शैलेन्द्र ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ मुझ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: शैलेन्द्र

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पण्डित जी महराज,

देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज !


बुरी घड़ी में मैं जन्मा जब राजे और नवाब,

तारे गिन-गिन बीन रहे थे अपने टूटे ख़्वाब,

कभी न देखा हरम, चपल छ्प्पन छुरियों का नाच,

कलजुग की औलाद, मिली है किस्मत बड़ी ख़राब,

दादी मर गई, कर गई रूप कथा से भी मुहताज !


तुम जिनके जाते हो उनका बहुत सुना है नाम,

सुनता हूँ, उस एक छत्र में कभी न होती शाम,

काले, पीले, गोरे, भूरे, उनके अनगिन दास,

साथ किसी के साझेदारी औ' कोई बेदाम,

ख़ुश होकर वे लोगों को दे देती हैं सौराज !


उनका कामनवैल्थ कि जैसे दोधारी तलवार,

एक वार से हमें जिलावें , करें एक से ठार,

घटे पौण्ड की पूँछ पकड़ कर रुपया माँगे भीख,

आग उगलती तोप कहीं पर, कहीं शुद्ध व्यापार,

कहीं मलाया और कहीं सर्वोदय सुखी समाज !


रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाए,

चारों ओर अकाल, जिऊँ मैं कागद-पत्तर खाय?

मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नई स्फूर्ति,

बलिहारी वह दॄश्य, कल्पना अधर-अधर लहराए--

साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज  !

1953 में रचित