आरसी प्रसाद सिंह / परिचय
आरसी प्रसाद सिंह
हिन्दी और मैथिली भाषा के प्रमुख हस्ताक्षर, साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि, कथाकार और एकांकीकार महाकवि आरसी प्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त 1911 को हुआ । और 15 नवम्बर 1996 तक हमारे बीच एक अडिग चट्टान की तरह रहे । कविता, कहानी, एकांकी, संस्मरण, समीक्षा के साथ-साथ उन्होंने बाल साहित्य भी खूब लिखा । बिहार के समस्तीपुर ज़िला में रोसड़ा रेलवे स्टेशन से आठ किलोमीटर की दूरी पर बागमती नदी के किनारे एक गाँव आबाद है एरौत (पूर्व नाम ऐरावत) । यह गाँव महाकवि आरसी प्रसाद सिंह की जन्मभूमि और कर्मभूमि है । इसीलिए इसे आरसी नगर एरौत कहा जाता है । अगर सोच की सतह पर आठ किलोमीटर और आगे तैरने की हिम्मत हो तो बाबू देवकी नंदन खत्री (लेखक – चंद्रकांता, पहला जासूसी उपन्यास जिसे पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी) का जन्मस्थान बल्लीपुर भी है ।
आरसी प्रसाद सिंह ने कभी भी परवशता स्वीकार नहीं की । उम्र भर नियंत्रण के ख़िलाफ आक्रोश ज़ाहिर करते रहे । चालीस के दशक में जयपुर नरेश महाकवि आरसी को अपने यहाँ राजकवि के रूप में सम्मानित करना चाहते थे । इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने काफी आग्रह, अनुनय-विनय किया परंतु आरसी बाबू ने चारणवृत्ति तथा राजाश्रय को ठुकरा दिया । ऐसी थी महाकवि आरसी की शख़्सियत । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, राम कुमार वर्मा, डॉ. धीरेंद्र वर्मा, विष्णु प्रभाकर, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, बुद्धिनाथ मिश्र और अज्ञेय समेत कई रचनाकारों ने हिंदी और मैथिली साहित्य के इस विभूति को सम्मान दिया । कभी शब्दों से तो कभी सुमनों से ।
आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी लिखते हैं - “सचमुच ही यह कवि मस्त है । सौंदर्य को देख लेने पर यह बिना कहे रह नहीं सकता । भाषा पर यह सवारी करता है । इस बात की उसे बिल्कुल परवाह नहीं कि उसके कहे हुए भावों को लोग अनुकरण कह सकते हैं, कल्पना प्रसूत समझ सकते हैं : उसे अपनी कहानी है । कहे बिना उसे चैन नहीं है । उपस्थापन में अबाध प्रवाह है । भाषा में सहज सरकाव । ‘जुही की कली’ को देखकर वह एक सुर में बोलता जायेगा - एक कलिका वन छबीली विश्व वन में फूल / सरस झोंके खा पवन के तू रही है झूल / पंखड़िया फूटी नहीं छूटे न तुतले बोल / मृग-चरण चापल्य, शैशव-सुलभ कौतुक लोल / और पायी वह न मादकमयी मुस्कान / सुन, सजनी, तू अधखिली नादान । ...और इसी प्रकार बहुत कुछ । समालोचक कवि की ब्यास शैली पर हैरान हैं । उसके भाव सागर के उद्वेलन से दंग ।” कवि आरसी कई रूपों में हमारे सामने आते हैं । कुछ रचनाकारों के ख़्याल पेश करता हूँ –
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री लिखते हैं - “बिहार के चार तारों में वियोगी के साथ प्रभात और दिनकर के साथ आरसी को याद किया जाता है । किंतु आरसी का काव्य मर्म-मूल से प्रलम्ब डालियों और पल्लव-पत्र-पुष्पों तक जैसा प्राण-रस संचारित करता रहा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । किसी एक विषय, स्वर या कल्पना के कवि वह नहीं हैं । उनकी सम्वेदना जितनी विषयों से जुड़ी हुई है, उनकी अनुभूति जितनी वस्तुओं की छुअन से रोमांचित है, उनका स्वर जितने आरोहों, अवरोहों में अपना आलोक निखारता है, कम ही कवि उतने स्वरों से अपनी प्रतिभा के प्रसार के दावेदार हो सकते हैं ।”
पद्मभूषण श्री अमृतलाल नागर ने कभी कहा था - “उन्हें जब कभी देख लेता हूँ, दिल खुश हो जाता है । आरसी में मुझे प्राचीन साहित्यिक निष्ठा के सहज दर्शन मिलते हैं ।”
प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने महाकवि आरसी की एक कृति ‘नन्ददास’ के बारे में लिखा है - “रोमांटिक कवियों में कुछ कवि आगे चलकर अध्यात्मवाद की ओर मुड़ गये और आरसी भी उनमें से एक हैं । निराला ने ‘तुलसीदास’ की जीवन कथा के माध्यम से देशकाल के शर से विंधकर ‘जागे हुए अशेष छविधर’ छायावादी कवि की छवि देखलाकर परम्परा का विकास किया तो कवि आरसी ने ‘नन्ददास’ के माध्यम से परम्परा का पुनरालेखन किया है ।”