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आखरां री आंख सूं / नवनीत पाण्डे
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म्हैं देखूं , थूं देखै, सैंग दिखै
अपणै आप नै, दूजां नै
इण भोम, आभै नै
पण कठै लख सक्या ओजूं तांई
जिणनै लखणै री हूंस जी में लियां
घडता, रचता रैवां
नूवां नूवां आखर
नित नूवां आखर
बिना सोच्यां विचारां
कुणसो है सांचो
अर मांयलो आखर
लगा न्हाक्यों अंबार
आखरां ईज आखरां रो
भेळो कर लियो आखरां रो
कित्तो ईज भाखर
लिखां इत्ता.....
भणां कित्ता?
म्हैं ईज इण पांत में
भेळा हूं सैंग सागै
म्हारै आखरां री आ भीड.
कांई कठे सूं बी कविता लागै??
म्हारी खेचळ,
सोधती रैवै दिनरात
कदेई न कदेई हूवैला पूरी साध
वै मांयला,सांचा आखर.
आवैला
म्हारी कलम रै हाथ...