भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीड़ा आई पीड़ा के मन / लाला जगदलपुरी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:31, 21 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाला जगदलपुरी |संग्रह=मिमियाती ज़िन्दगी दहाड…)
विकल करवटें बदल-बदल कर
भोगा हमने बहुत जागरण,
’गहराई’ चुप बैठे सुनती
’सतह’ सुनाते जीवन-दर्शन ।
देव दनुज के संघर्षों का
हमने यह निष्कर्ष निकाला,
’नीलकण्ठ’ बनते विषपायी
जब-जब होता अमृत-मंथन ।
सफल साधना हुई भगीरथ
नयनों में गंगा लहराई,
साँठ-गाँठ में उलझ गए सुख,
पीड़ा आई पीड़ा के मन ।
ऐसे-ऐसे सन्दर्भों से
जुड़ जुड़ गई सर्जना अपनी,
हृदय कर रहा निन्दा जिनकी
मुँह करता है उनका कीर्तन ।
गूँज रही है बार-बार कुछ
ऐसी आवाज़ें मत पूछो;
नहीं सुनाई देता जिनमें
जीवन का कोई भी लक्षण ।