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जो रिश्ते हैं हक़ीक़त में वो अब रिश्ते नहीं होते / नित्यानन्द तुषार

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जो रिश्ते हैं हक़ीक़त में वो अब रिश्ते नहीं होते
हमें जो लगते हैं अपने वही अपने नहीं होते

कशिश होती है कुछ फूलों में ,पर ख़ुशबू नहीं होती
ये अच्छी सूरतों वाले सभी अच्छे नहीं होते

वतन की जो तरक़्क़ी है अभी तो वो अधूरी है
वो घर भी हैं, दवाई के जहाँ पैसे नहीं होते

इन्हें जो भी बनाते हैं वो हम तुम ही बनाते हैं
किसी मज़हब की साजिश में कभी बच्चे नहीं होते

सभी के पेट को रोटी, बदन पे कपड़े,सर पे छत
बहुत अच्छे हैं ये सपने मगर सच्चे नहीं होते

पसीने की सियाही से जो लिखते हैं इरादों को
'तुषार' उनके मुक़द्दर के सफ़े कोरे नहीं होते