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एक तुम हो / मनविंदर भिम्बर

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एक तुम हो
जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ
एक मैं हूँ
जो काग़ज़ पर भी कुछ उतार नहीं पाती

तुमने अकसर झील के पानी पर
पहाड़ और पेड़ ऐसे उकेर दिए
जैसे झील पर उग आया हो एक संसार

झील पहाड़ और पेड़
मैं खोती रहती हूँ इनमें
और देखती हूँ अपने अक्षरों को
झील में तैरते हुए
पहाड़ पर चढ़ते हुए
पेड़ पर लटके हुए

तब तुम कहते हो
`आँखें खोलो´
पर नज़रें कैसे मिलाऊँ
उस पल