भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिसार / मनोज छाबड़ा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:30, 2 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज छाबड़ा |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> हिसार! बिना दरवा…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिसार!
बिना दरवाज़ों का एक शहर
एकदम खुला
सुबह
मुर्गे की आवाज़ से नहीं
किसी-किसी घर में
चिड़ियों की आवाज़ से होती है
 
सबसे पहले इस शहर में
बिहार जागता है
सच है
सारे मुल्क में सबसे पहले बिहार जागता है
सबसे पहले
बर्तनों में चावल उबलता है
शहर जगता है जब लेबर चौक में
बिहार दृढ़ता से डटा होता है
सैकड़ों कोस दूर
मुंबई तक ये समाचार पहुँचता होगा ज़रूर
जहाँ
मैथिली-भोजपुरी ज़ुबान पर
बैठाया जा चुका है कर्फ्यू
 
बिहार का हिसार से
रिश्ता है कुछ वैसा ही
जैसा
मेहनत का प्रगति से
यदा-कदा
कुछ चिड़चिड़े लोग
मुंबई बना देना चाहते हैं हिसार को
परन्तु
अगली सुबह
वही लोग
ढूँढते हैं लेबर चौक में
ट्राँजिस्टर साईकिल से बाँधे
घूमते-फिरते बिहार को
 
हर शाम
जब गूज़री-महल के खंडहरों से उड़कर
उत्तर की ओर जाते हैं
चमगादड़
बिहार सारा
मनीआर्डर की पाँत में खड़ा होता है
 
हिसार की ख़ुशहाली
पूरे राष्ट्र की ख़ुशहाली के जैसे
पहुँचती है दूर बिहार में
और
रात देर तक
ताड़ी को याद कर
नाचता है बिहार
हिसार की अधबनी इमारतों में