भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विलग करो वसन / निज़ार क़ब्बानी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:15, 2 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=निज़ार क़ब्बानी |संग्रह= }} Category:अरबी भाषा <Poem> …)
|
विलग करो
वसन निज देह से
शताब्दियों से
किसी चमत्कार ने
स्पर्श नहीं किया इस पृथ्वी का
सो, विलग करो
निज वसन निज देह से ।
मैं हो चुका हूँ मूक
किन्तु तुम्हारी काया को
पता है संसार की सभी भाषाएँ
सो, विलग करो
सब वसन निज देह से ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह