Last modified on 2 जनवरी 2011, at 22:37

फिर, संवाद कैसा / मोहन सपरा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:37, 2 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन सपरा }} {{KKCatKavita‎}} <poem> सूर्य तो सूर्य है अंधका…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सूर्य तो सूर्य है
       अंधकार के इतिहास से
       एकदम अलग-थलग,
       फिर, संवाद कैसा ?

फूल तो फूल है
       काँटों के इतिहास से
       एकदम अलग-थलग,
       फिर, संवाद कैसा ?

आकाश तो आकाश है-
       बादलों के इतिहास से
       एकदम अलग-थलग
       फिर, संवाद कैसा ?

नदी तो नदी है
       किनारे के इतिहास से
       एकदम अलग-थलग
       फिर, संवाद कैसा ?

आदमी तो आदमी है
       देवता के इतिहास से
       एकदम अलग-थलग
       फिर, संवाद कैसा ?