भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलदान भी धूल सना है / नारायणलाल परमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 3 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नारायणलाल परमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> एक कलेण्डर टँगा पुर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक कलेण्डर टँगा पुराना
है घर की दीवाल पर

सूख रहे फूलों के पौधे
टूटी है खपरैल भी
बुझने-बुझने को है ढिबरी
ख़त्म हो रहा तेल भी
      घड़ी टिकटिका रही अहर्निश
      जैसे चिड़िया डाल पर

टँगे अलगनी पर हैं कपड़े
मैले धूसर आज भी
सूने घर में चूहे दौड़े
आती उन्हें न लाज भी
      फूलदान भी धूल सना है
      रोता अपने हाल पर

जीवन और मरण में उलझा
आज तलक इतिहास है
कहने-सुनने को यह सब कुछ
और नहीं कुछ खास है
      एक अदद है रहा आदमी
      जीता अपने हाल पर ।