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बारिश में घर लौटा कोई / कैलाश गौतम

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     बारिश में घर लौटा कोई
     दर्पण देख रहा
     न्यूटन जैसे पृथ्वी का
     आकर्षण देख रहा ।

धान-पान-सी आदमकद हरियाली लिपटी है, हाथों में हल्दी पैरों में लाली लिपटी है

     भीतर ही भीतर कितना
     परिवर्तन देख रहा ।

गीत-हँसी-संकोच-शील सब मिले विरासत में जो कुछ है इस घर में सब कुछ प्रस्तुत स्वागत में

     कितना मीठा है मौसम का
     बंधन देख रहा ।

नाच रही है दिन की छुवन अभी भी आँखों में, फूलझरी-सी छूट रही है वही पटाखों में

     लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई
     हर क्षण देख रहा ।

दिन भर चाह रही होठों पर, दिन भर प्यास रही रेशम जैसी धूप रही मखमल-सी घास रही

     आँख मूँदकर
     सुख
     सर्वस्व समर्पण देख रहा ।

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