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दूब / केदारनाथ अग्रवाल

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हरी दूब के ऊपर कोई
साँप रात भर लोटा;
दबती रही,
मगर दबकर भी-
उठ भिंसारे
नए बाल-रवि का मुँह देखा।

रचनाकाल: ०६-१०-१९६१