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मरा हुआ पानी / केदारनाथ अग्रवाल
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ऐसी भी
अनुभूति हुई है कभी
मरा हुआ पानी
खिंची हुई खाल-सा पड़ा रहा
न प्रकाश ने उसे जिलाया
न वायु ने उसे हिलाया
न ताप ने तपाया
न आग ने जलाया
वह पानी
बेमानी
वह खाल
बेमिसाल
मैं देखता रह चकराया
मौन के बोध में गहराया
मैंने कहा : वह बोले
पानी हो या खाल रहस्य खोले
लेकिन अवचन रहस्य अवचन रहा
दिवंगत पानी का दिवंगत प्रवचन रहा
रचनाकाल: २७-०९-१९६५