भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सृष्टि का अनन्त विस्तार / सतीश छींपा
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:51, 14 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सतीश छींपा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>तुम पूजा हो मुझ ना…)
तुम पूजा हो
मुझ नास्तिक के लिए
तुम्हारा पर्याय कोई ईश्वर नहीं
पर एक द्वार
उस सृष्टि का
जहाँ सृजित होता प्रेम
रहता अटल जीवन
युग-युगान्तर
एक हृदय से दूसरे में
दूसरे से तीसरे
तीसरे से चौथे
चलता अविराम
सृष्टि का अनन्त विस्तार
अटक जाता
तुम्हारे चेहरे
नाक को चूमती नथ में।