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उड़ी, आई / केदारनाथ अग्रवाल

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उड़ी
आई,
प्यार का अवलम्ब देकर-
चहचहाई।

गई,
ऊपर
मुझे तजकर;
हुई ओझल,
पुनः वापस नहीं आई-
प्यार का अवलम्ब लेकर।

मैं,
बिना उसके
उसे अब भी जिलाए,
प्यार का अवलम्ब पाए,
जी रहा हूँ
जिंदगी को
जगमगाए।

रचनाकाल: ०४-०३-१९९०