Last modified on 19 जनवरी 2011, at 14:09

हरे रामा ब्रजवीथिन्ह विच बहुरि (कजली) / आर्त

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 19 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आर्त }} {{KKCatKavita‎}} Category:अवधी भाषा <poem> हरे रामा ब्रजवी…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हरे रामा ब्रजवीथिन्ह विच बहुरि बाँसुरी बाजे रे हारी ।।

चली बिहाइ कन्त ब्रज बनि तन्हि विकल विरह बौरानी रामा
हरे रामा कृष्ण कालिन्दी कूल कदम्ब तर राजे रे हारी ।।1।।

चुम्बति चरन चहकि चंचलि कोई चिबुक चारु चटकीली रामा
हरे रामा सुघरि सखी सकुचाति श्याम संग साजे रे हारी ।।2।।

अम्बुज अरुण अधर अति सोहत अली चली अति प्यारी रामा
हरे रामा जोहे न जिन्ह जदुवीर ते जनम अकाजे रे हारी ।।3।।

मनमोहन की मिलनि मधुर मुनि मुदित महेश मनावत रामा
हरे रामा युग-युग जियें ब्रजराज को विरद विराजे रे हारी ।।4।।