काश ! कभी परियाँ दे जातीं
हमें  घड़े  भर पैसे ?
जेब-ख़र्च  को दो पाई भी 
मिले नहीं  मम्मी से ।
सोचो  कितना  अच्छा होता 
जाती  मौज   मनाई,
खाते  बर्फी,   पेड़े,  लड्डू
चमचम सभी मिठाई ।
जेबें   रहतीं  गरम  हमारी
मुँह में  रहती टॉफ़ी,
फ़िर रसगुल्लों की चोरी कर
नहीं  माँगते माफ़ी ।
राजा  बनते  और  न रहते
कोई ऐसे-वैसे !
नया-नया फिर बल्ला होता 
बॉल  सैकड़ों  लाते,
कई  बॉलें खो जातीं तो भी
आँसू नहीं  बहाते ।
जाते पिकनिक, सैर - सपाटा
कुल्लू और  मनाली,
नहीं  किसी बच्चे  की होती
तब तो जेबें ख़ाली । 
सच हो जाते,फिर तो मन के 
सपने कैसे-कैसे !