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हाथ से बेहाथ होकर / केदारनाथ अग्रवाल

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हाथ से बेहाथ होकर
गिरा,
टूटा,
फर्श पर दम तोड़ बैठा,
काँच का मेरा गिलास!

भूख का भाषण हुआ अब
दूध का
व्याकुल विलाप।

पेट खाली रहा खाली,
और, मैं भी
चुप रहा,
इस त्रासदी को सह गया,
बेहाल
होकर रह गया।

रचनाकाल: २०-१०-१९९१