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हवा ठंडी / केदारनाथ अग्रवाल
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हवा ठंडी-
बहुत ठंडी
मारती है
चपत मुझको
बार-बार।
धूप
मेरी पीठ करती
ताप तापित बार-बार।
द्वन्द्व यह
निर्द्वन्द्व होकर
झेलता हूँ
मार खाता
पीठ अपनी
सेंकता हूँ-
रचनाकाल: ११-१-१९९२