Last modified on 20 जनवरी 2011, at 23:59

न जाने कैसी बुरी घड़ी में दुल्हन बनी एक अभागन / गोपाल सिंह नेपाली

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:59, 20 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली }} {{KKCatGeet}} <poem> न जाने कैसी बुरी घड़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

न जाने कैसी बुरी घड़ी में, दुल्हन बनी एक अभागन
पिया की अर्थी लेकर चली होने सती सुहागन

अर्थी नहीं नारी का सुहाग जा रहा है
भगवान तेरे घर का सिंगार जा रहा है

बजता था जीवन का गीत, दो साँसों के तारों में
टूटा है जिसका तार, वो सितार जा रहा है
भगवान तेरे घर का...

जलता था, जब तक जलती रही चिंगारी
बुझने को अब तन का, अंगार जा रहा है
भगवान तेरे घर का...

भव सागर की लहरों में, बिछड़े ऐसे दो साथी
सजनी मँझधार, साजन उस पार जा रहा है
भगवान तेरे घर का...

(1953) फ़िल्म 'नाग पंचमी'