भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सागर तट पर / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:00, 21 जनवरी 2011 का अवतरण ("सागर तट पर / केदारनाथ अग्रवाल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह मिली हो
पानी-ही-पानी की तुमको!
इसी देह से तरुण तरंगित
घोड़ों को तुम
बे लगाम दौड़ाते हो,
और,
चौकड़ी भरते हिरनों की
रंगरेली दिखलाते हो,
नीलकाय तुम श्वेतकाय हो
फेन-फेन बन जाते हो
किंतु चेतना नहीं प्राप्त कर पाते हो
आदिकाल से अब तक केवल
प्राकृत जीवन जीते हो
महासिंधु-सागर-पयोधि, बस,
कहलाते हो,
आज तुम्हारे तट पर आकर,
मैंने तुमको अपनाया है,
और तुम्हारी ऊर्जा को
अपनी ऊर्जा में बदल लिया है
अब मैं बूढ़ा महाकाल से नहीं डरूँगा
लड़ते-लड़ते, जीते-जीते नहीं
मरूँगा।

रचनाकाल: ०४-०३-१९९२