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उड़कर आए / केदारनाथ अग्रवाल

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उड़कर आए
नीलकंठ जी मेरे घर में
दर्शन देकर मुझे रिझाने
मेरे दुख-संताप मिटाने।

मैंने देखा
किंतु न रीझा।

मैंने पूछा-
बनते हो शिव-शंभू!
कहाँ गया वह जटाजूट?
कहाँ गई सिर की गंगा?
कहाँ गया
वह चंद्र दुइज का?
कहाँ गई मुंडों की माला?
कहाँ ब्याल की माल गई?
कहाँ गया डमरू?
त्रिशूल अब कहाँ गया?
नंदी कहाँ?
कहाँ अर्द्धांगी?
आ धमके,
विषपायी जैसा स्वाँग दिखाने।

हटो, हटो,
मैं नहीं चाहता तुम्हें देखना,
तुम्हें देखकर भ्रम में रहना।




रचनाकाल: ११-१-१९९२