भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्मा से प्रेम / विमल कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:11, 28 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल कुमार }} {{KKCatKavita‎}} <poem> चाहता हूँ तुम्हारी आत्म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाहता हूँ तुम्हारी आत्मा से करना प्रेम
पर बीच में आ जाती है
तुम्हारी देह
और आत्मा भी रहती है
देह के कोटर में ही
और यह देह कितनी लुभावनी है
कितने जुगनू झिलमिलाते हैं
इसके अंधेरे मे
क्या ठीक है
देह की नदी पार कर
हर बार पहुँचना आत्मा तक
आत्मा को फिर एक पुल बनाकर
देह के जंगल में विचरना
मरने के बाद नहीं रहती है
यह देह
राख ही तो हो जाती है
क्या याद करते हुए इस राख को
नहीं पहुँच सकता मैं तुम्हारी आत्मा की
घाट की सीढ़ियों के किनारे
यह प्रशन है अनुत्तरित
मेरे सामने अब तक
सच्चा प्रेम
छिपा है वाकई
क्या किसी स्मृति में ही ?
यह प्रेम दर‍असल
कोई प्रेम नहीं
जिसकी नहीं है कोई बची हुई स्मृति
महज रोमांच नहीं है
नहीं है केवल उत्तेजना भर
यह प्रेम !
जो हमने किसी क्षण
पाया था तुम्हारे साथ बैठे
अचानक, अनायास
यूँ ही...