एक यह भी सही / अनुराग वत्स
देख कर तुम्हें कभी यह नहीं लगा कि तुम्हारी उजली हँसी पर प्रेम की वह छाया भी पड़ती है जो तुम्हें चुप और उदास बनाती है और मुझे उन सब अभिनेय भूमिकाओं के लिए धीरे से तैयार, जो अक्सर त्रिकोण उभरने पर कुछ कम हीरो के हिस्से बदी होती है । एक तो अभिनय के इस अच्छेपन में मेरा यकीन नहीं दूसरे मैं इस नियति को बहुत शक्की निगाह से देखता हूँ । देखने के इस सयाने, बचकाने या बेढंग ने 'जो पसंद है सो पसंद है' की दलील पर मेरा ऐतबार ही बढ़ाया और इससे कुछ हो न हो कहानी के दो एकांत नहीं रह गए । तीसरा एकांत मेरे मन का अहाता है जिसकी चौहद्दी पर तुम्हारा यह अफ़सोस फ़िलहाल ठिठक गया है कि 'हम अक्सर उसे क्यों चाहने लगते हैं जो पहले से किसी और के प्यार में मुब्तिला रहता है'. मैं इसमें प्रेजेंट इम्परफेक्ट टेंस का एक वाक्य घटित होने से ज़्यादा कुछ देख नहीं पाता और इसी कमनज़री से अपने कोने में आबाद हूँ । जैसे त्रिकोण में कहीं तुम हो. जैसे दुनिया में हर शै है । वह भैया होगा जिसके साथ तुम भाग जाना चाहती हो । अब इतना कुछ अजीबोगरीब ढंग से पैबस्त है जीवन में तो एक यह भी सही ।