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तुम और मैं / विजय कुमार पंत

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कसमसाते मन
को टटोलता मस्तिष्क..
निरंतर द्रुत गति से दौड़ता है
अंग प्रत्यंग..
बिना प्रयोजन..
दिशा हीन..
स्वयं की छाया से भी त्रस्त..
और ऐसे में उम्मीद
की किरण भी नज़र नहीं आती...
अगर समय रहते
तुमसे मित्रता नहीं होती...
स्वयं में निहित सभी शक्तियां
अपने ही चक्रव्यूह से निष्प्रभावी
तब तुम्हारा अवलोकन आंकलन ही
एक मात्र निर्देशक नियंत्रक बन
करता है अंतर्द्वंद का निराकरण ..
और मित्र तब समझ पाता हूँ
तुम तुम नहीं मेरा प्रतिबिम्ब हो..
"सत्य" ही है की
हम दो शरीर.... एक मन
और
एक ईश्वर हैं...