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नीयत-ए-बागवाँ समझते हैं / मनोहर विजय

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नीयत-ए-बागवाँ समझते हैं
क्यूँ जला गुलिस्ताँ समझते हैं

वक़्त की हर ज़ुबाँ समझते हैं
हम सभी शोख़ियाँ समझते हैं

फूल-सा चेहरा ज़ुल्फ़ है ख़ुशबू
हम उसे गुलिस्तॉं समझते हैं

चोट खाकर ही दिल पर अकसर लोग
दर्द की दास्ताँ समझते हैं

और कुछ भी नही फ़क़त हम तो
प्यार को इम्तिहाँ समझते हैं

वो ख़ुशी के नशे में डूबे हैं
दर्द मेरा कहाँ समझते हैं

बूटा-बूटा उदास है कब से
अहल-ए-गुलशन कहाँ समझते है

खेलते हैं ‘विजय’ ग़मों से जो
हादिसों की ज़ुबॉं समझते हैं