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कविता : दो / श्याम महर्षि

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कविता आग नहीं है
जिस से लोग
सेक सकें रोटी
और नहीं है वह कोई वस्त्र
कि जिस से
किसी का नंगापन ढक जाए
कविता औरतों के गीत भी नहीं
जो कि गली गली में गाए जा सके ।

कविता मेरे भीतर के
आदमी की जुबान है
और है मेरे मन की पुकार
कविता अब करायेगी पहचान
भूख और रोटी की
कविता तो बस छाया है कवि की ।

अनुवाद : नीरज दइया